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नेशनल उर्दू काउंसिल का पटना सेमिनार या उर्दू के नाम पर तमाशा आसिफ़ इमाम ? सैय्यद आसिफ़ इमाम काकवी

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पटना; राष्ट्रीय उर्दू काउंसिल के नेतृत्व में आयोजित तीन दिवसीय सेमिनार का उद्घाटन बड़े धूमधाम और औपचारिकता के साथ हुआ। हॉल तालियों से गूँज रहा था, माननीय वक्ताओं ने उर्दू के भविष्य पर शानदार भाषण दिए, और बिहार के गवर्नर मानिये श्री आरिफ मुहम्मद खान साहब ने मुसलमानों की कमजोरियों को बेहद गंभीर और तर्कसंगत ढंग से प्रस्तुत किया। निस्संदेह यह सब देखने और सुनने में बहुत उत्साहजनक था। लेकिन सवाल यह है क्या सिर्फ़ तालियों की गूँज उर्दू को जीवित रख पाएगी ? हक़ीक़त यह है कि इन सेमिनार से सिर्फ़ सरकारी अपनी झोली भर रहे हैं। उर्दू के नाम पर होटल-बैठकें और तालियां गूंज रही हैं, मगर ज़ुबान की जमीन सूखती जा रही है। राष्ट्रीय उर्दुभाषा विकास परिषद, नई दिल्ली के तत्वाधान में 22 से 24 अगस्त तक बापू टावर, गरदनी बाग, पटना में “उर्दू के भविष्य और विकसित भारत 2047” विषय पर त्रिदिवसीय सेमिनार का आयोजन किया जा रहा है। इस सेमिनार में उर्दू भाषा की वर्तमान स्थिति, इसके विकास की संभावनाओं और विकसित भारत के निर्माण में इसकी अपेक्षित भूमिका के विभिन्न पहलुओं पर विचार प्रस्तुत किए जा रहे हैं। मगर सबसे महत्वपूर्ण और गंभीर सवाल यह है कि क्या उर्दू केवल मुसलमानों की भाषा है? इतिहास इस सवाल का जवाब साफ़ करता है। उर्दू भारत में पली-बढ़ी, यहाँ की मिट्टी और संस्कृति में घुली। 1980 के दशक तक यह सरकारी राजभाषा में गिनी जाती थी। न्यायिक दस्तावेज उर्दू और फारसी में तैयार किए जाते थे। तब यह भाषा किसी विशेष समुदाय तक सीमित नहीं थी। तो फिर आज उर्दू के साथ यह विशेष सौतेलापन क्यों? क्यों इसे केवल एक समुदाय की भाषा बना कर पेश किया जा रहा है, जबकि यह हमारी सांस्कृतिक और ऐतिहासिक धरोहर है? उर्दू जो कभी हमारी तहज़ीब और संस्कृति की पहचान थी, जो दिलों को जोड़ती थी और रिश्तों को संवारती थी । उर्दू… वह ज़ुबान जिसके बारे में ग़ालिब ने कहा था कि “हज़ारों ख़्वाहिशें ऐसी कि हर ख़्वाहिश पे दम निकले”। वही ज़ुबान आज मर्ग़-ए-बिस्तर पर कराह रही है। सरकार का दावा है कि वह उर्दू की तरक्की और तालीम के लिए संजीदा है। मगर हक़ीक़त यह है कि दूरदर्शन और आकाशवाणी से उर्दू मजलिस और उर्दू के प्रोग्राम ख़त्म कर दिए गए। स्कूलों में उर्दू शिक्षकों की बहाली रोक दी गई। उर्दू कौंसिल में उर्दू की तालीमी और अदबी स्कीमें बंद कर दी गईं। इसके बावजूद मीडिया में प्रचार किया जाता है कि सेमिनारों के ज़रिये उर्दू वालों को जागरूक किया जा रहा है। । आज का सबसे बड़ा तंज़ यह है कि अवाम उर्दू को जोड़ते हैं, मोहब्बत से निभाते हैं। मगर सियासतदान उर्दू सुनकर तिलमिला उठते हैं। देश के बड़े नेता उर्दू को “ग़ुसपैठियों की ज़ुबान” कह देते हैं। और वहीं, उर्दू अवार्ड लेने की होड़ लगी रहती है। यह कैसा खेल है? उर्दू से नफ़रत और उर्दू अवार्ड से मोहब्बत उर्दू को मिटाने की साज़िश और उर्दू सेमिनारों की नुमाइश सच यही है कि उर्दू की तरक़्क़ी सेमिनारों और तालियों से नहीं होगी। इसके लिए स्कूलों में उर्दू की बुनियाद को मज़बूत करना होगा, उर्दू शिक्षकों की बहाली करनी होगी, और रेडियो-टीवी पर उर्दू की आवाज़ वापस लानी होगी। वरना उर्दू की यह कराह एक दिन चीख़ बन जाएगी। उर्दू को जिंदा रखने का दिखावा सेमिनारों, कॉन्फ्रेंसों और शायराना महफ़िलों से किया जा रहा है, लेकिन ज़मीनी स्तर पर उर्दू की बुनियाद खोखली की जा रही है। उर्दू काउंसिल में जो स्कीमें थीं, जिनसे उर्दू अदब, तालीम और तहक़ीक़ आगे बढ़ती थी, उन्हें या तो रोक दिया गया है या दिखावटी बना दिया गया है। मगर मीडिया में यह प्रचार किया जा रहा है कि “सरकार उर्दू की तरक़्क़ी के लिए गंभीर है” और बार-बार सेमिनार करवाकर तस्वीर पेश की जाती है जैसे बहुत बड़ा काम हो रहा है। उर्दू वालों को “वाह-वाह” करने के बजाय हक़ और रोज़गार की मांग करनी चाहिए। सच यही है कि उर्दू की बुनियाद सिर्फ़ तालियों और शायराना महफ़िलों से नहीं बच सकती। इसे जीवित रखने के लिए शिक्षा, रोजगार, मीडिया और सरकारी समर्थन सभी ज़रूरी हैं। समाज और नागरिकों को मिलकर यह सुनिश्चित करना होगा कि उर्दू केवल किसी एक समुदाय की भाषा न रह जाए, बल्कि हमारी साझा सांस्कृतिक पहचान और भारत की विविधता की मिसाल बनी रहे। उर्दू का भविष्य अब दिखावे और समारोहों पर नहीं, बल्कि वास्तविक प्रयासों और नीतिगत बदलावों पर निर्भर करता है। अगर आज हम इसकी जड़ों को कमजोर करते रहे, तो कल यह भाषा केवल यादों और तालियों की गूँज तक सीमित रह जाएगी। उर्दू हमारी विरासत है, हमारी पहचान है और इसे बचाना हम सबकी जिम्मेदारी है उर्दू को बचाने के लिए क़ौम और समाज की सच्ची कोशिश ज़रूरी है, न कि सरकारी नुमाइश।

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